किसान नेता बोले, क्या दिल्ली में चुंबक खींच रही है पराली का धुआं? कमजोर किसान पर मढ़ रहे हैं दोष

 


किसान नेता बोले, क्या दिल्ली में चुंबक खींच रही है पराली का धुआं? कमजोर किसान पर मढ़ रहे हैं दोष



दिल्ली के खराब वायु प्रदूषण को लेकर केंद्र और आसपास के राज्यों के बीच सियासत चल रही है। जिसे देखो, वह पराली को ही प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है। हर कोई बोल रहा है कि किसानों को जेल में डाल दो, क्योंकि वे ही दिल्ली के प्रदूषण की वजह हैं। लेकिन असल बात पर कोई नहीं कर रहा है। किसान नेता वीएम सिंह यहीं पर नहीं रुके, उन्होंने सवाल किया, आप ही बताएं कि दिल्ली में ऐसी कौन सी चुंबक लगी है, जिससे चारों तरफ पराली जलाने का धुआं यहां चला आ रहा है।



 

कुछ लोग कहते हैं कि तीन घंटे में पटियाला का धुआं दिल्ली पहुंच गया। पीलीभीत का धुआं भी दिल्ली आ रहा है और हरियाणा के तराई क्षेत्र, जहां चावल पैदा होता है, वहां से धुआं सीधे दिल्ली पहुंच रहा है। पराली जलाने के दौरान क्या हवा की दिशा सदैव दिल्ली की ओर होती है। ऐसा लगता है कि हवा जरा सी भी इधर-उधर नहीं होती और पराली के धुएं को दिल्ली ले आती है।

ये सब किसानों को दबाने की चाल है, और कुछ नहीं। अगर सरकार को लगता है कि पराली से प्रदूषण हो रहा है, तो वह हर गांव में पेपर या बायोगैस प्लांट लगा दे। किसानों की पराली 250-300 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से खरीदे।

अन्नदाता को कसूरवार ठहराना छोड़ें


ऑल इंडिया किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी (एआईकेएससी) के संयोजक वीएम सिंह कहते हैं कि अन्नदाता बहुत कमजोर स्थिति में है, इसलिए सब लोग दिल्ली के प्रदूषण का ठीकरा उसके सिर पर फोड़ देते हैं। उसे तो अभी तक अपनी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएमपी) भी नहीं मिलता। यदि पराली जलाने का असर इतना ही होता है, तो वह सदैव होना था। यह शोर तो अभी पांच-छह साल पहले ही मचना शुरू हुआ है।

द एनर्जी एंड रिसॉर्स इंस्टिट्यूट (टीईआरआई) की गत वर्ष की एक रिपोर्ट बताती है कि पूरे मौसम में खेतों में लगाई जाने वाली आग (पराली) और बायोमास से फैलने वाले प्रदूषण का योगदान महज चार फीसदी है। हर बात पर किसान को कसूरवार ठहराना छोड़ दें। दशहरे के दिन दिल्ली की गली-गली में रावण जलता है, पटाखे भी छोड़े जाते हैं, इंडस्ट्री भी धुंआ फैंकती है, पावर प्लांट, गाड़ियां और दूसरे कई ऐसे कारक हैं, जो प्रदूषण के खतरनाक स्तर के लिए जिम्मेदार हैं।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अनुमिता राय चौधरी का कुछ ऐसा ही कहना था। उनके मुताबिक, दिल्ली में अपना खुद का ही प्रदूषण बहुत ज्यादा है। फसल सालभर तो कटती नहीं है। धान की कटाई का सीजन कुछ ही सप्ताह का होता है। ऐसे में प्रदूषण के खतरनाक स्तर के लिए पूरी तरह किसान को दोष देना सही नहीं है।

प्रदूषण के लिए ये भी हैं जिम्मेदार


दिल्ली में बढ़ते वाहन, बिजली उत्पादन संयंत्र, निर्माणकार्य और इंडस्ट्री आदि भी प्रदूषण के लिए उत्तरदायी है। इस बार प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए हर स्तर पर चेतना आई है। दोनों प्लान, इमरजेंसी प्लान और कॉम्प्रेहेन्सिव क्लीनर एक्शन प्लान पर काम शुरू हो रहा है। पावर प्लांट बंद करना, डीजल जेनरेटर सेट पर रोक, निर्माण कार्यों पर प्रतिबंध आदि इमरजेंसी प्लान में आते हैं। दूसरे प्लान में शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म योजनायें शामिल हैं।

अच्छी बात यह है कि इस बार सभी एजेंसी को अपने-अपने काम के लिए टाइम बाउंड कर दिया गया है। प्लान नोटिफाइड भी हुए हैं। अब जरूरत केवल इसे सख्ती और ईमानदारी से लागू करने की है। यह सब तय योजना के अनुसार हुआ, तो राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण का स्तर कम हो जाएगा।

कौन सा वाहन फैलाता है कितना प्रदूषण


पीएम 2.5 के लिए सिर्फ वाहनों का आंकड़ा देखा जाए, तो इससे होने वाले प्रदूषण का कुल योगदान लगभग 28 फीसदी है। इसमें ट्रक और ट्रैक्टर से सबसे ज्यादा नौ फीसदी प्रदूषण फैलता है। दो पहिया वाहनों से सात फीसदी, तीन पहिया वाहनों से पांच फीसदी और चार पहिया वाहनों से तीन और बसों से तीन फीसदी प्रदूषण फैलता है। दिल्ली में पीएम 2.5 के स्तर में धूल से फैलने वाले प्रदूषण का योगदान 18 फीसदी है।

इसमें सड़क पर धूल से तीन फीसदी प्रदूषण, निर्माण कार्य से एक, जबकि अन्य तमाम वजहों से 13 फीसदी फैलता है। राष्ट्रीय राजधानी में PM 2.5 के स्तर को बढ़ाने में इंडस्ट्री का 30 फीसदी योगदान है। इसमें पावर प्लांट का छह, ईंटों का आठ, स्टोन क्रैशर दो फीसदी, जबकि अन्य छोटे-बड़े उद्योगों से 14 फीसदी प्रदूषण फैलता है।

गेहूं की ठूंठ नष्ट नहीं होती


वीएम सिंह कहते हैं कि किसान पराली न जलाए तो क्या करे। उसे नष्ट करने के संसाधन, सरकार जिनकी बात कर रही है, वे महंगे हैं। किसानों की हालत आज किसी से छिपी नहीं है। वह अपने दम पर पराली को नष्ट करने वाले उपकरण कैसे खरीद सकता है। सरकार सब्सिडी की बात करती है, लेकिन वह तो केवल एक उपकरण के लिए है। पराली नष्ट करने वाले उपकरण के लिए तो ट्रैक्टर की जरुरत होती है। अगर इस मशीन का इस्तेमाल गेहूं की ठूंठ को नष्ट करने के लिए होता है, तो वह पूरी तरह खत्म नहीं होता। इससे सूंडी पैदा होती है।

इसे खत्म करने के लिए किसान को पेस्टीसाइड का इस्तेमाल करना पड़ता है। इसके बाद फिर से किसान को दोष दिया जाएगा कि उसने फसलों में पेस्टीसाइड का छिड़काव किया था, इसलिए लोगों को कैंसर हो रहा है। समस्या का हल यह है कि सरकार गांव में पेपरमील या बायोगैस प्लांट लगा दे। इससे सारी पराली की खपत हो जाएगी। किसान से 250-300 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर सरकार पराली खरीद ले। इस तरह प्रदूषण की समस्या खत्म हो सकती है।